Thursday, 12 February 2015

परम ईश्वर भक्त महर्षि दयानन्द

ऋषि दयानन्द को नास्तिक कहने वाले या मूर्ति पूजा पर कुतर्क करने वालो को जवाब -
शिवरात्रि की रात जब बालक मूलशंकर ने देखा चूहे शिवलिंग पर चढ़कर प्रसाद खा कर मल-मूत्र कर रहे है तो उन्हें घोर संदेह और निराशा हुई, क्योंकि जिस शिव के बारे में उन्होंने सुना-पढ़ा था वो तो दुष्टो को मारने को तुरंत प्रकट हो जाते है. पाषाणपूजा पर ऐसा तर्क इतनी  और नहीं मिलता. बालक मूलशंकर ने सोचा जो अपनी रक्षा नहीं कर सकता वो मेरी रक्षा क्या करेगा. इस तरह की सोच किसी को नास्तिक बना देती है लेकिन मूलशंकर नास्तिक नहीं हुए, उन्होंने उसी सच्चे शिव को जानने का प्रयास किया. अगर वह शिव किसी स्थान विशेष पर है तो भी तलाश करना उनका उद्देश्य हो गया. अपनी बहन और प्रिय चाचा की मृत्यु से भी वो नास्तिक नहीं हुए अपितु सच्चे ईश्वर शिव की खोज को उन्होंने शुरू किया घर भी छोड दिया. उन्होंने कभी भी ईश्वर के प्रति ना होने की बात नहीं कि. लेकिन हरिद्वार आदि स्थलों पर उन्होंने ये ज़रूर देखा की ईश्वर के नाम पर लोग धंधा कर रहे है इससे उन्हें और प्रबलता से ईश्वर को जानने की इच्छा हुई. १७ बार जहर भी पिया लेकिन किसी से कोई शिकायत व्यक्तिगत नहीं की, ऋषि ने अपने निर्वाण पर भी ईश्वर के अस्तित्व को नहीं नाकारा  और कहा "हे ईश्वर तूने अच्छी लीला की तेरी लीला पूर्ण हो और अंतिम शब्द ओउम उनके मुख से निकला। महर्षि दयानन्द जी के जीवन में सच्चे ईश्व
रभक्त और आस्तिक की झलक मिलती है.