Friday, 1 April 2016

पहले कृण्वन्तो स्वयंआर्यम करे

अभी कुछ दिन के घटनाक्रम में किसी का आर्य समाज में आने और जाने को इतना महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। हरा तरह के लोग सभी संगठनों में जुड़ते और निकलते है। कारण यह है की कुछ लोग चाहते है दूसरे सुधर जाए और हम जैसे है वैसे के वैसे ही रहे। महर्षि दयानन्द ने तो कहा है "कोई बात इसलिए मत मानो की दयानन्द ने कही है, बल्कि अपनी बुद्धि से मानो"। कुछ लोग जुड़ते है यह देखकर की संगठन अच्छा है और ज्ञान भी बहुत है लेकिन अपने पुराने विचार नहीं बदलना चाह्ते।
ऐसा ही एक वृतांत है पंडित भीमसेन इटावा वाले का। स्वामी जी के शिष्य बने और वैदिक यन्त्रालय में कार्य भी किया। लेकिन एक बार अपनी मृतक श्राद्ध को रोजी-रोटी मानने के कारण और यज्ञ में अवैदिक कार्य करने के कारण आर्य समाज से निकलना पड़ा। तत्पश्चात पौराणिकों के खेमे में जाकर ब्रह्मणसर्वस्व पत्रिका में  आर्य समाज का खंडन करने लगे। फिर पंडित भीमसेन जी को कई बार आर्य विद्वानों ने शास्त्रार्थ  ललकारा, बहुत आनाकानी के बाद भी इनको आना पड़ा। भीमसेन जी शास्त्रार्थ में मृतक श्राद्ध को सिद्ध न कर सके और जाने लगे।
तब इनको जाते हुए देखकर पंडित कृपाराम जी ने कहा - पंडित जी, आप वृद्धावस्था की और जा चुके है और मैं भी गृहस्थी के झंझटों से मुक्त हूँ। तो अब मृतक श्राद्ध वेदोक्त है या नहीं, इस विषय के लिए दोनों सन्यास ले लेते है। आप भारत भ्रमण पर निकलिए। जंहा-जंहा आप इसे सिद्ध करंगे वंहा-वंहा मैं इसका खंडन करूँगा। मैं इसी समय सन्यस्त होने के लिए तैयार हूँ आप भी दीक्षा लिजीये। इस निर्भीक वचन को सुनकर पंडित भीमसेन जी बोले आप "आप त्याग कर सकते है परन्तु मैं अभी गृह त्याग नहीं कर सकता। (इस आगरा शास्त्रार्थ का वृतांत स्वामी प्रेस, मेरठ से प्रकाशित हुआ) (साभार - आर्य समाज  शास्त्रार्थ महारथी)
इसी प्रकार से लोग आएंगे जायेंगे इन्हे इतना महत्व देने की आवश्यकता नहीं है। 

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