Friday, 1 April 2016

पहले कृण्वन्तो स्वयंआर्यम करे

अभी कुछ दिन के घटनाक्रम में किसी का आर्य समाज में आने और जाने को इतना महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। हरा तरह के लोग सभी संगठनों में जुड़ते और निकलते है। कारण यह है की कुछ लोग चाहते है दूसरे सुधर जाए और हम जैसे है वैसे के वैसे ही रहे। महर्षि दयानन्द ने तो कहा है "कोई बात इसलिए मत मानो की दयानन्द ने कही है, बल्कि अपनी बुद्धि से मानो"। कुछ लोग जुड़ते है यह देखकर की संगठन अच्छा है और ज्ञान भी बहुत है लेकिन अपने पुराने विचार नहीं बदलना चाह्ते।
ऐसा ही एक वृतांत है पंडित भीमसेन इटावा वाले का। स्वामी जी के शिष्य बने और वैदिक यन्त्रालय में कार्य भी किया। लेकिन एक बार अपनी मृतक श्राद्ध को रोजी-रोटी मानने के कारण और यज्ञ में अवैदिक कार्य करने के कारण आर्य समाज से निकलना पड़ा। तत्पश्चात पौराणिकों के खेमे में जाकर ब्रह्मणसर्वस्व पत्रिका में  आर्य समाज का खंडन करने लगे। फिर पंडित भीमसेन जी को कई बार आर्य विद्वानों ने शास्त्रार्थ  ललकारा, बहुत आनाकानी के बाद भी इनको आना पड़ा। भीमसेन जी शास्त्रार्थ में मृतक श्राद्ध को सिद्ध न कर सके और जाने लगे।
तब इनको जाते हुए देखकर पंडित कृपाराम जी ने कहा - पंडित जी, आप वृद्धावस्था की और जा चुके है और मैं भी गृहस्थी के झंझटों से मुक्त हूँ। तो अब मृतक श्राद्ध वेदोक्त है या नहीं, इस विषय के लिए दोनों सन्यास ले लेते है। आप भारत भ्रमण पर निकलिए। जंहा-जंहा आप इसे सिद्ध करंगे वंहा-वंहा मैं इसका खंडन करूँगा। मैं इसी समय सन्यस्त होने के लिए तैयार हूँ आप भी दीक्षा लिजीये। इस निर्भीक वचन को सुनकर पंडित भीमसेन जी बोले आप "आप त्याग कर सकते है परन्तु मैं अभी गृह त्याग नहीं कर सकता। (इस आगरा शास्त्रार्थ का वृतांत स्वामी प्रेस, मेरठ से प्रकाशित हुआ) (साभार - आर्य समाज  शास्त्रार्थ महारथी)
इसी प्रकार से लोग आएंगे जायेंगे इन्हे इतना महत्व देने की आवश्यकता नहीं है। 

गुरुकुल के साथ यह अन्याय क्यों?

शुद्धि आंदोलन (घरवापसी) के प्रणेता रहे स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने परिवार के रहने लिए छत भी नहीं रखी। फिर अपने ब्रह्मचारियों से एक समय का उपवास कराकर जो धन बचा उसे आंदोलन में दान दिया। अंग्रेज सरकार और निजाम हैदराबाद ने जब हिन्दुओ पर अत्याचार किये तो गुरुकुल के विद्यार्थियों ने हैदराबाद में सत्याग्रह किया। लेकिन आज भारत सरकार JNU जैसे संस्थानों पर कृपादृष्टि रखती है लेकिन गुरुकुल पर कोप ढहाती है। भारत में प्राचीन समय में तीसरी सभा विद्या सभा होती थी जो स्वतंत्र कार्य करती थी। गुरुकुल को इसी कारण कमजोर किया जा रहा है कल किसी भी राष्ट्रविरोधी और संस्कृति विरोधी कृत्यों पर विद्यार्थी या शिक्षण संस्थान मौन रहे। नेहरू के नाम पर सरकारी संपत्ति के प्रयोग से बना JNU आज राष्ट्र विरोधी तत्वों के साथ है। फिर गुरुकुल पर सरकार रूखा सा रवैया क्यों रखती है?
शिक्षा किसी राष्ट्र और समाज का आधार होती है। यदि शिक्षा अच्छी और संस्कारयुक्त हो तो समाज का आधार दृढ होगा। सभ्य समाज ही धर्म और राष्ट्र को बचा पाएगा। आज की शिक्षा व्यवस्था डिग्री धारक तो पैदा कर रही है, लेकिन संस्कार और मानवता नहीं। अगर धर्म, राष्ट्र और समाज को बचाना है तो गुरुकुलो पर ध्यान देना ही होगा। सभी शिक्षण संस्थाओं में आज के समय में विभिन्न विद्यार्थी संगठन भी है। जो चुनाव में सम्म्लित होते है और नेता चुनते है। लेकिन इन सभी पढ़ाई के प्रति लगन न के बराबर परन्तु राजनीति में अधिक होती है। इससे विद्यार्थियों और देश का कोई लाभ नहीं हो रहा।
लेकिन गुरुकुल काँगड़ी विश्विद्यालय के नाम एक कीर्ति है। भारत की परतन्त्रता के काल में भी बिना किसी विद्यार्थी संगठन के गुरुकुल के विद्यार्थियों ने न केवल स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया वरन निजाम हैदराबाद ने जब मासूम हिन्दू जनता पर अत्याचार किये तो उसका भी पुरजोर विरोध किया और विजयी भी हुए। मार्ग में अनगिनत कष्ट और कठनाईयों का सामना करते हुए हरिद्वार से हैदराबाद पहुंचे। जिसकी सुचना निजाम और अंग्रेज सरकार को लग चुकी थी और विद्यार्थियों पर गुप्तचर छोड़ दिए। किसी धर्मशाला तक में भी विद्याथियों को रहने न दिया। सुल्तान बाजार उस दिन नारो से गूँज उठा -
जो बोले सो अभय - वैदिक धर्म की जय 
आर्य समाज - जिन्दाबाद 
पर्चे फेंके गए जिनपर लिखा था -
कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिंदुस्तान एक है। सांस्कृतिक दृष्टि से उसके दो भाग नहीं हो सक्ते। जब तक हमे धार्मिक और नागरिक अधिकार नहीं मिलेंगे,  हम अंतिम दम तक लड़ेंगे।
अंततः छात्रों को जानवरों की तरह जेल में ठूंस दिया गया और उनके साथ बर्बर व्यवहार किया गया। खाने की रोटी में राख और मिटटी मिली होती थी। अमानवीय यातनाएं सहते हुए भी आर्य छात्रों, सन्यासियों का यह आंदोलन सफल हुआ। गुरुकुल ने समय-समय पर देश की स्वतन्त्रता में और सभ्य समाज के निर्माण में योगदान दिया। आज गुरुकुल के साथ सरकारों का व्यवहार दुःख पहुंचता है। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने महर्षि दयानन्द जी के सपने और आर्यावर्त के स्वर्णिम अतित  पुनर्स्थापना के लिए जिस गुरुकुल को अपना सर्वस्व न्योछावर करके बनाया आज उस तपोभूमि की दुर्दशा और उपेक्षा की जा रही है। ऐसी स्थिति में गुरुकुल ऐसे निर्भीक और देशप्रेमी छात्र दे पाएगा? गुरुकुल के साथ किया अन्याय स्वयं भारत पर अन्याय होगा।

Friday, 5 February 2016

क्यों है आर्य समाज की ज़रूरत?

अभी कुछ दिनों पहले जनपद हरिद्वार के रुड़की का समाचार पढ़ा। जिसमे दो युवको ने निरंकारी बाबा के सत्संग से आ रही महिला के साथ ठगी की। वाक्या कुछ ऐसा है कि जब महिला संत बाबा निरंकारी के सत्संग से आ रही थी तो दो युवको ने महिला से कोई पता पूछा, जो महिला ने बता दिया। फिर उन्होंने महिला से कहा की माताजी बुरा मत मानना क्या आपके घर कष्ट है? जिस पर महिला ने कहा हाँ है। युवको ने महिला को कुछ दिशा-निर्देश दिये जो महिला ने सहमति से किये। फिर उन्होंने महिला को कहा की आप अपने गहने उतार के २१ कदम उलटे चले तो आपके परिवार पर आया सब संकट टल जाएगा। महिला ने विश्वास करते हुए अपने गहने उन युवको को दिए और आँख बंद करके 21 कदम उलटे चली। जब आँख खोली तो युवक गायब थे। जिसमे महिला को ठगी का आभास हुआ। महिला का अन्धविश्वास उसके लूटने का कारण बना। महिला सत्संग से आ रही थी, लेकिन ऐसे सत्संग का क्या लाभ जिससे अन्धविश्वास और पाखण्ड का निर्मूलन न हो? अधिकतर सत्संगों में यही सिखाया जाता है  अच्छा है, सबसे प्रीति करो, सब धर्म अच्छे है। कुछ बाबा लोग वेद विरुद्ध आचरण तक अपनाने की बात करते है। बिना जाने समझे ही कह देते है ऐसा टोटका करने से सब मनोरथ पुरे होंगे और व्रतादि और स्नानादि करने से पाप नष्ट होंगे। जबकि यजुर्वेद के अध्याय 1 के 8 वे मंत्र में स्पष्ट लिखा है, ईश्वर पाप क्षमा नहीं करता है-
जो ईश्वर सब जगत को धारण कर रहा है, वह पापी दुष्ट जीवो को उनके अनुकूल दण्ड देकर दुःखयुक्त और धर्मात्मा पुरुषो को उत्तम कर्मो के अनुसार फल देके उनकी रक्षा करता है।
(यजुर्वेद 1/8)              
कुछ लोग अपना स्वार्थ साधने के लिए वेद विरुद्ध व्यवस्था की बात करते है जिससे उनका चलता रहे। सच तो यही ही पाप क्षमा करना और अकारण सताना अन्याय है और ईश्वर न्यायकारी है। ऋग्वेद में भी किये कर्मो को भोगने और शुभ कर्मो के करने का आदेश है। मेरी स्पष्ट मान्यता है कि यदि महिला वेद ज्ञान को मानती या आर्य समाजी होती तो उन ठगो के चक्कर में  फंसती। लेकिन महिला के लूटने का कारण तर्क छोड़ ऐसे बाबाओ के सत्संगों में अपना समय बर्बाद करती रही जो उसे पाखण्ड से भी न बचा सके। साधारण लोगो को आर्य समाज के बोल कड़वे लगते है लेकिन कड़वे है तो क्या है तो सच ! भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री मोदी जी ने संसद के पहले भाषण में यही कहा था की जिस दिन देश की अंधश्रद्धा समाप्त हो जाएगी देश प्रगति के रास्ते पर जायेगा और हमे मिलकर देश की अंधश्रद्धा समाप्त करनी है।
आज अगर अंधश्रद्धा और पाखण्ड समाप्त करने की कोई दवा है उस दवा का नाम आर्य समाज है।

Friday, 25 December 2015

आर्य समाज का ही विरोध क्यों?


आजकल इंटरनेट पर कुछ पौराणिकों द्वारा उन पुरानी पुस्तको को डाला जा रहा है, जो कभी आर्य समाज के विरोध में लिखी गयी। आज के समय में केवल हिन्दू समाज में सैकड़ो की संख्या में मत/सम्प्रदाय है। हज़ारो बाबा/माताये है जिनकी स्पष्ट मान्यताये वेद विरुद्ध मत की है। लेकिन आर्य समाज के विरोधियो को केवल आर्य समाज ही दिखाई दिया क्यों? इसका एक ही कारण है, चाहे कितना वैदिक मान्यताओ पर आघात करो, चाहे कितना श्रीराम और श्रीकृष्ण पर लांछन लगा कर बदनाम करो लेकिन पौराणिक मान्यताओ जो पाखंड से भरी है उनका खंडन मत करो। अर्थात कितनी दुकाने खोल लो लेकिन हमारे माल को खराब मत बताओ। आर्य समाज के विरुद्ध लिखने वाले पौराणिक कभी इस्लाम और ईसाइयत को जवाब भी नहीं दे पाये। जब इस्लामी लेखको ने सीता माता और श्रीकृष्ण को चरित्रहीन कहकर बदनाम किया तो एक भी पौराणिक की हिम्मत नहीं हुई की प्रतिउत्तर दे सके। सभी का उत्तर दिया आर्य समाज के धुरंधरों ने। लेकिन आज उन्ही आर्य समाज के शास्त्रार्थ महारथियों को बदनाम किया जा रहा है। मध्वाचार्य, श्रद्धाराम फैलोरी और कालूराम शास्त्री मुस्लिमो से शास्त्रार्थ नहीं करते थे जबकि हिन्दुओ को धर्मांतरण चरम पर था। पंडित गुरुदत्त की  सिद्ध होती प्रतीत हो रही है जब उन्होंने कहा था कि "लोग आज भले ही महर्षि दयानंद की  मानते हो लेकिन २०० वर्षो के बाद लोगो को एहसास होगा महर्षि दयानन्द सही थे।" आज जब वेदो पर गौ हत्या, पशुबलि और बहुदेववाद की बात होती है तो केवल महर्षि दयानन्द के वेद भाष्य से ही प्रमाण दिए जाते है। महर्षि दयानन्द से हमेशा दुरी बनाकर रखने वाले संघ को भी जब वेदो के आक्षेप पर पाञ्चजन्य में कई पृष्ठों का लेख लिखना पड़ा तो केवल महर्षि दयानन्द का वेद भाष्य ही याद आया। संघ के आदर्श पुरुष विवेकानंद है लेकिन उनका कुछ नहीं लिख पाते क्योकि विवेकानंद स्वयं मांसाहरी थे। मैं अपने आसपास के पौराणिक पंडितो को देखता हूँ तो आर्य समाज का विरोध केवल इसी कारण करते है की आर्य समाज श्रम करके रोटी खाना सिखाता है लोगो को ग्रह नक्षत्र का डर दिखाकर नहीं। मैं स्वयं पौराणिक परिवार से था लेकिन मेरे क्षेत्र पर आर्य समाज का प्रभाव था जिस कारण पाखंड और अन्धविश्वास से दूर रहा।सच कहे तो अवतारवाद चलकर पौराणिकों ने अपने पेट भरने का प्रबंध ही किया है। लेकिन इसका फायदा अन्य लोगो ने भी जमकर उठाया।
1- पहले साईं बाबा आये, फिर पंडो ने उन्हें श्रीकृष्ण का अवतार बनाकर पूजना शुरू किया, पौराणिक चुप।
2- फिर स्वयं को साईं का अवतार बताकर सत्यसाईं ने काफी धन सम्पदा अर्जित की, पौराणिक चुप।
3- ब्रह्मकुमारी मत के गुरु ने स्वे को ब्रह्मा बताया और देशभर में अपना मत फैला दिया, पौराणिक चुप
4- रामपाल ने पुराण, वेद और हिंदू धर्म को ही पंगु बना दिया और स्वयं को कबीर का अवतार बता दिया, पौराणिक चुप।
5- निर्मला माता आई उनके पैरो पर स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर पूजा गया, पौराणिक चुप।
6 - एक सदानन्द गुरु आये वो स्वे को कलियुग में विष्णु का अवतार घोषित कर पुजवा रहे है, पौराणिक चुप
ऐसे सैकड़ो उदाहरण है, जन्हा पौराणिक समाज चुप रहा लेकिन आर्य समाज पर ही कलम चलायी, आर्यवीरो ने प्रतिउत्तर दिया लेकिन आजकल यह झूठ प्रचलित किया जा रहा है की आर्य समाज ने किसी पुस्तक का उत्तर नहीं दिया। अभी तक समाज चुपचाप यही देखता रहता था की पंडित जी ने वेद मंत्रो से मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा कर दी, लेकिन अब पूछना शुरू कर दिया की मृतक शरीर में प्राण क्यों नहीं फूंक सकते? यह जागृति आर्य समाज की देन है जिसका दुःख पौराणिकों को है। स्पष्ट है पौराणिक समाज को केवल अपने पाखण्ड का विरोध दुखता है, भले ही वैदिक मान्यताओ का विरोधी स्वयं को ब्रह्मा, विष्णु, महेश घोषित कर दे उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है।

Thursday, 12 February 2015

परम ईश्वर भक्त महर्षि दयानन्द

ऋषि दयानन्द को नास्तिक कहने वाले या मूर्ति पूजा पर कुतर्क करने वालो को जवाब -
शिवरात्रि की रात जब बालक मूलशंकर ने देखा चूहे शिवलिंग पर चढ़कर प्रसाद खा कर मल-मूत्र कर रहे है तो उन्हें घोर संदेह और निराशा हुई, क्योंकि जिस शिव के बारे में उन्होंने सुना-पढ़ा था वो तो दुष्टो को मारने को तुरंत प्रकट हो जाते है. पाषाणपूजा पर ऐसा तर्क इतनी  और नहीं मिलता. बालक मूलशंकर ने सोचा जो अपनी रक्षा नहीं कर सकता वो मेरी रक्षा क्या करेगा. इस तरह की सोच किसी को नास्तिक बना देती है लेकिन मूलशंकर नास्तिक नहीं हुए, उन्होंने उसी सच्चे शिव को जानने का प्रयास किया. अगर वह शिव किसी स्थान विशेष पर है तो भी तलाश करना उनका उद्देश्य हो गया. अपनी बहन और प्रिय चाचा की मृत्यु से भी वो नास्तिक नहीं हुए अपितु सच्चे ईश्वर शिव की खोज को उन्होंने शुरू किया घर भी छोड दिया. उन्होंने कभी भी ईश्वर के प्रति ना होने की बात नहीं कि. लेकिन हरिद्वार आदि स्थलों पर उन्होंने ये ज़रूर देखा की ईश्वर के नाम पर लोग धंधा कर रहे है इससे उन्हें और प्रबलता से ईश्वर को जानने की इच्छा हुई. १७ बार जहर भी पिया लेकिन किसी से कोई शिकायत व्यक्तिगत नहीं की, ऋषि ने अपने निर्वाण पर भी ईश्वर के अस्तित्व को नहीं नाकारा  और कहा "हे ईश्वर तूने अच्छी लीला की तेरी लीला पूर्ण हो और अंतिम शब्द ओउम उनके मुख से निकला। महर्षि दयानन्द जी के जीवन में सच्चे ईश्व
रभक्त और आस्तिक की झलक मिलती है.


Friday, 13 September 2013

कमजोर पड़ता लोकतंत्र और जन आन्दोलनो से उठता विश्वाश

कांग्रेस के घोटालो, अकर्मण्यता, विफलताओ और अव्यवस्थाओ से देश उब चूका था और उम्मीद भी छोड़ चूका था कि कुछ अच्छा होगा देश में, और अन्य राजनितिक दलों या संस्थाओ से भी विश्वाश समाप्त हो चूका था. एक तरफ होते घोटाले और उनका पर्दाफाश तो देखते रहे सभी मूक होकर किन्तु कोई उम्म्मीद नहीं लगा राखी थी किसी से. ऐसे में कंही से छोटी सी चिंगारी अन्ना और बाबा रामदेव के रूप में दिखी परन्तु अगर परदे के पीछे से देखे तो पत्रकारिता बाबा के साथ नहीं लग रही थी. अन्ना को बाबा का साथ मिला नयी पहचान मिली और अन्ना और उनकी मण्डली का चेहरा भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ नयी पहचान के रूप में आया.
अन्ना ने दिल्ली में जो आन्दोलन चलाया जो मात्र लोकपाल तक सीमित था उसमे लोगो का इतना बड़ा हुजूम और लाखो उम्मीद उमड़ी जिससे सरकार को भी भय हुआ हर तरफ अन्ना अन्ना ही दिखाई दिया. उस आन्दोलन में जितने लोग पहुंचे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश तक के लोग आये. अन्ना ये समझते थे कि हर कोई जानता था कि लोकपाल क्या है या लोकपाल के समर्थक आये है, लेकिन ऐसा नहीं था बहुत ही कम लोग आये थे जो जानते होंगे कि लोकपाल क्या है? वास्तव में लोग तो कोंग्रेस के खिलाफ गए जो भ्रष्टाचार और अव्यवस्था से परेशान थे, बहुत से संघ और भाजपा दुआरा आये और संघ ने भी अपनी पूरी ताकत लगा दी कि कांग्रेस का चेहरा सामने आये और अन्ना सफल हो. पता नहीं अन्ना जानते थे या नहीं लेकिन अन्ना बाद में ज़रूर समझ गए थे कि संघ के लोग भी है इसमें.
वो आशंकित थे श्रेय से...... कि संघ जन आन्दोलन का श्रेय न ले ले.
अन्ना को भ्रम था कि ये सब उनके लिए आ रहे है, लेकिन ऐसा नहीं था. इधर धीरे-धीरे अन्ना के अनशन के दिन बढ़ रहे थे और तबियत गिर रही थी. और उधर सरकार भी मानने को तैयार नहीं हो रही थी. कोई बीच का रास्ता भी नहीं दिख रहा था अगर अन्ना झुके या सरकार दोनों तरफ से जनता पर गलत सन्देश जाता.

पहली मांग थी : सरकार अपना कमजो बिल वापस ले.नतीजा : सरकार ने बिल वापस नहीं लिया.दूसरी मांग थी : सरकार लोकपाल िल के दायरे में प्रधान मंत्री को लाये.नतीजा : सरकार ने आज ऐसा कोई वायदा तक नहीं कियाअन्ना को दिए गए समझौते के पत्र में भीइसका कोई जिक्र तक नहीं.तीसरी मांग थी : लोकपाल के दायरे में सांसद भी हों:नतीजा : सरकार ने आज ऐसा कोई वायदा तक नहीं कियाअन्ना को दिए गए समझौते के पत्र में भीइसका कोई जिक्र नहीं.चौथी मांग थी : तीस अगस्त तक बि संसद में पास हो.नतीजा : तीस अगस्त तो दूर सरकार ने कोई समय सीमा तक तय नहीं की कि वह बिल कब तकपास करवाएगी.पांचवीं मांग थी : बिल को स्टैंडिंग कमेटी में नहीं भेजा जाए.नतीजा : स्टैंडिंग कमेटी के पास एक के बजाय पांच बिल भेजे गए ैं.छठी मांग थी : लोकपाल की नियुक्ति कमेटी में सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम हो.नतीजा : सरकार ने आज ऐसा कोई वायदा तक नहीं किया तथा अन्ना को दिए गए समझौते के पत्रमें भी इसका कोई जिक्र तक नहीं.सातवीं मांग : जनलोकपाल बिल पर संसद में चर्चा नियम 184 के तहत करा कर उसके पक्ष औरविपक्ष में बाकायदा वोटिंग करायी जाएनतीजा : चर्चा 184 के तहत नहीं हुईना ही वोटिंग हुई.इन सबके अतिरिक्त वे 'तीन अन्य मांगेंजिनका जिक्र सरकारद्वारा आज अन्ना को दिए गए समझौतेके पत्र में किया हैइस प्रकार ह -

(1) 
सिटिज़न चार्टर लागू करना.
(2) 
निचले तबके के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे मे लाना.
(3) 
राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति करना.



तो बताइए इसमें कंहा है जनलोक्पाल ?
अन्ना एवं सभी दलों ने उस दिन देश की पूरी जनता को धोखा दिया.
और अन्ना ने भी कह दिया आधी आज़ादी मिल गई, क्या आज़ादी भी टुकडो में मिलती है भला?
सच तो ये है सभी दल और अन्ना उस समय को किसी तरह टालना चाहते थे. 

अपनी सीमित दुनिया से पर्दा हटाकर देखा,
फैला देश में घना अधकार है,
लूट रहा मुल्क पर सोती जनता और सरकार है.
अकबर मार्ग पर रहकर, औरंगजेब मार्ग बनाते,
लूटेंगे देश को ये उनका पुराना व्यपार है,
धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़े सैकड़ो राजनितिक गांधी,
किस-किस को मारे गोडसे आज लाचार है,
करता हु आह्वान, करो निश्चय, भरो हुंकार,
नहीं आ पाए आ पाए ऐसी सरकार अगली बार,
मातृभूमि को दे कहते, जिसके कोटि-कोटि उपकार है,
तन-मन-धन तुझ पर न्योछावर,
बोल माँ तुझे क्या स्वीकार है?
आतंकी को सम्मान और संतो का अपमान है,
ऐसी वोटबैंक की राजनीति को धिक्कार है,
चंद सिक्को में जीवन गुजारता गरीब परिवार है,
फिर क्यों शाही थाली की कीमत कई हज़ार है?
आंकड़ो में तो सरकारी गोदाम के खाली भण्डार है,
फिर पूछो कैसे फुले चूहों के पेट का आकार है?
संवेदनहीनता में भूखे मरने को गरीब लाचार है,
लेकिन उसके नेता के गले में करोडो का हार है.
बेटो की हालत पर व्यथित मातृभूमि की पुकार है,
बदलो ये व्यवस्था, इस शर्मनिरपेक्षता का क्या आधार है?