Monday, 17 June 2013

ग़ुलाम सोच

ये हमारी प्रवृत्ति है की स्वयं पर विश्वास न करके दुसरो पर करना बिना सोचे समझे अन्धि नक़ल करते है. जिसका फायदा वो लोग उठा लेते है जिनको हम नायक बना देते है. 
जब बिसलेरी, कोका कोला, पेप्सी जैसी कम्पनीया भारत में पानी बेचने आयी तो किसने सोचा था कि ये इतना बिकेगा? लेकिन जब सचिन तेंदुलकर ओर अमीर खान जैसे लोगो ने इनका विज्ञापन किया तो इन कम्प्नियो का पानी गांव गांव तक बिकता है. गाँधी, अन्ना, केजरीवाल या कांग्रेस् सभी ने हमारी इस कमजोरी का फायदा उठाया.
इस ब्लॉग में मेने दूसरों पर देखी ओर अपने ऊपर घटित हुए महसूस कि हुई घटनाओं को लिखा. मैं शुरू से ही कन्या शिक्षा का प्रबल समर्थक रहा था. मैं चाहता था कि कन्या विध्यर्थियो के लिए बसों में निशुल्क किराये कि व्यवस्था हो क्योकि हम लड़कियों को घर से ही हतोत्साहित कर देते है लेकिन मैं जब भी किसी से बोलता तो हर कोई बोलता कि क्या ज़रुरात है इसकी? लएकिन जब भाजपा के सी.एम. खंदुरि ने यह व्यवस्था दी चूँकि वो भाजपा के थे तो लोगो ने काफ़ी खुशी जाहिर की ओर तारीफ की फिर मेने उन्हीं लोगो से पूछा कि मैं भी तो यही बोलता था फिर तब तो कहते थे कि कोई ज़रूरत नही लेकिन आज समर्थन कैसे? या तो उस समय मैं ग़लत था या आज सी. एम. भी ग़लत है? ऎसी कई घटनाये मेने देखी. किसी कोई कहा कि क्रिकेट/आई पी एल तो देश द्रोही है तो बोलते है क्यो है देश द्रोही?
लेकिन हमने तो कसम खाई हुई है ना कि हम नही सुंनेगे अपनी ओर अपने साथियों कि.
जिस भारत माता के फोटो को लगाकर असीम त्रिवेदी हीरो बनते है प्रसिद्धि मिलने के बाद उसी भारत माता के अस्तितव को अस्वीकार कर देते है, कोई सम्झाये असीम जी को कि भारत माता अर्थात मातृभूमि जिसे अँगरेजी में मदरलैंड (motherland) कहते है. राज ठाकरे बोलते है कि हिन्दी तो राज भाषा है राष्ट्र भाषा नही अब वो राज्नीतिक व्यक्ति होकर भी नही जानते कि संविधान में देश यानी राष्ट्र को राज्य ही लिखा है ओर राज्य को प्रदेश. ओर हिन्दी को छोड़कर कौनसी भाषा है देश में जो सब जगह बोली समझी जा सकती है? उन्हें अँगरेजी से कोई ऐतराज नही तो हिन्दी से क्यो? एक समय था जब फ्रांसीसियो का ब्रिटेन पर राज था तो ब्रिटेन में अंग्रेजी बोलने पर सौ कोड़े मरने की सजा का प्रावधान था, लेकिन अंग्रेजो ने अपनी भाषा को नहीं छोड़ा, उसमे विश्वाश रखा और आज अंग्रेजी विश्व की दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है. हम अंग्रेजो को काफी बुरा समझते रहे है वो रहे भी बुरे हमारे प्रति लेकिन अपने देश के प्रति नहीं. हम लोग अच्छी तरह जानते है कि उन देशो का वातावरण काफी ठंडा रहता है और अंग्रेजो को यंहा रहने में दिक्कते भी होती है फिर भी उनकी सेना ने इतने मोटे मोड कपडे, कमर पर भारी वजन लेकर चले और युद्ध भी किया किसके लिए अपने देश के लिए अपने देश के झंडे को पूरी धरती पर फहराने के लिए. पर हम उनसे कुछ सीख न सके. आज भी हम लोग अपनी भाषा को छोड़कर अंग्रेजी कि तरफ दोड़ते है ये सोचकर कि अंग्रेजी के बिना कुछ संभव नहीं है और यही अंग्रेजी पहले स्थान पर नहीं है दुसरे स्थान पर है पहले स्थान पर तो चीनी भाषा है. जब चीन अपनी चीनी भाषा के साथ अभूतपूर्व विकास कर सकता है तो हम क्यों नहीं? उषा पान (सुबह उठकर जल पीना) कि परम्परा को हम कहते है कि चीन से आई जबकि पुराने शाश्त्रो में इसका साफ़ जिक्र किया है लेकिन हमने खुद को नाकारा साबित किया है और घर का जोगी जोगडा पसगांवा का सिद्ध कि बात को चरितार्थ किया है.
योग प्राणायाम से बड़े से बड़े रोग दूर हो जाते है परन्तु हम अंग्रेजी पद्दति से इलाज करना चाहते है. योग के विषय में कहा गया है-
जो योग नहीं करता-
जो आकर न जाये वो बुढ़ापा देखा, जो जाकर ना आये वो जवानी देखी.
लेकिन योग करने वालो का-
जो आकर भी जाये वो बुढ़ापा देखा और जो जाकर भी आये वो जवानी देखी.
महर्षि दयानंद जी ने भी प्रत्येक व्यक्ति को सुबह जल्दी उठकर (तारो कि छाँव में) बाहर घुमने और योग इत्यादि करके ईश्वर का ध्यान संध उपासना करने पर जोर दिया है.; इससे व्यक्ति के अन्दर आत्मविश्वास बढ़ता है और आत्मविश्वाशी व्यक्ति अति प्रतिकूल परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता. हम भारतीय रेल के डब्बे कि तरह हो गए है हम किसी भी इंजन के पीछे चल देते है लेकिन कभी वो इंजन बनने का प्रयास नहीं करते है.

हम आम आदमी हैं
किसी ‘खास’ का अनुगमन हमारी नियति है हमारे बीच से ही बनता है कोई ‘ खास ‘
हमारी मुट्ठियाँ देतीहैं शक्ति हमारे नारे देते हैं आवाज़
हमारे जुलूस देते हैं गति ... हमारी तालियाँ देती हैं समर्थन ….
तकरीरों की भट्टियों मे पकाए जाते हैं जज़्बात
हमारे सीने सहते हैं आघात 
धीरे धीरे बढ़ने लगती हैं मंचों की ऊँचाइयाँ
पसरने लगते हैं बैरिकेट्स पनपने लगती हैं मरीचिकाएं
चरमराने लगती है आकांक्षाओं की मीनार
तभी … अचानक होता है आभास
कि वो आम आदमी अबआम नहीं रहा
हो गया है खास और फिर धीरे धीरे …..
उसे बुलंदियों का गुरूर होता गया
आम आदमी का वही चेहरा आम आदमी से दूर होता गया
लोगों ने समझा नियति का खेल हो लिए उदास …
कोई चारा भी नहीं था पास लेकिन एक दिन
जब हद से बढ़ा संत्रास (यही कोई ज़मीरी मौत के आस -पास )
फिर एक दिन अकुला कर सिर झटक , अतीत को झुठला कर
फिर उठ खड़ा होता है कोई आम आदमी
भिंचती हैं मुट्ठियाँ उछलते हैं नारे
निकलते हैं जुलूस …. गढ़ी जाती हैं आकांक्षाओं की मीनारें
पकाए जाते हैं जज़्बात तकरीर की भट्टियों पर
फिर एक भीड़ अनुगमन करती है छिन्नमस्ता ,……!
और एक बार फिर से बैरीकेट्स फिर पसरते हैं
मंचों का कद बढ़ता है वो आम आदमी का नुमाइंदा
इतना ऊपर चढ़ता है … कि आम आदमी तिनका लगता है
अब आप ही कहिए … ये दोष किनका लगता है ?
वो खास होते ही आम आदमी से दूर चला जाता है
और हर बार आम आदमी ही छ्ला जाता है
चलिये कविता को यहाँ से नया मोड़ देता हूँ
एक इशारा आपके लिए छोड़ देता हूँ
गौर से देखें तो हमारे इर्द गिर्द भीड़ है
हर सीने मे कोई दर्द धड़कता है हर आँख मे कोई सपना रोता है
हर कोई बच्चों के लिए भविष्य बोता है
मगर यह भीड़ है बदहवास छितराई मानसिकता वाली 
आम आदमी की भीड़ पर ये रात भी तो अमर नहीं है !!
एक दिन ….आम आदमी किसी “खास” की याचना करना छोड़ देगा
समग्र मे लड़ेगा अपनी लड़ाई ,वक्त की मजबूत कलाई मरोड़ देगा
जिस दिन उसे भरोसा होगा कि कोई चिंगारी आग भी हो सकती है
बहुत संभव है बुरे सपने से जाग भी हो सकती है
और मुझे तो लगता है यही भीड़ एक दिन क्रान्ति बनेगी
और किस्मत के दाग धो कर रहेगी थोड़ी देर भले हो सकती है ‘
मगर ये जाग हो कररहेगी थोड़ी देर भले हो सकती है
मगर ये जाग हो कर रहेगी
- श्री पद्म सिंह 

Thursday, 13 June 2013

भारत - मेरे लिए क्या?

भारत मेरे लिया माँ-बाप, धर्म या मेरा सर्वस्व है यही मेरा धर्म है यही मेरा कर्म भी.
मेरा मानना है जिस मत या सम्प्रदाय में राष्ट्रप्रेम या राष्ट्र के प्रति सम्मान/नमन का (वन्दे मातरम) का विरोध है उसे छोड़ देना चाहिए जिस मातृभूमि ने हमे जल एना प्राणवायु दी उसी का विरोध? तो वो धर्म/सम्प्रदाय/मत निशाचरों अर्थात राक्षशो का है मनुष्य का नहीं हो सकता उसमे चाहे कोई हिन्दू हो या मुस्लिम, सिख हो या इसाई या कोई बौद्ध या जैनी.
हमारी जन्म देने वाली माँ के लिए हम कितना करने की सोच रखते है भगवान तुल्य समझते है जबकि उसने हमे मात्र नौ महीने पेट में रखा जबकि ye dharti हमे पूरी उम्र अपने पेट में रखती है फल फुल अन्न देती है हमारा बोझ सहती है फिर इसको नमन करने या कृतज्ञता प्रकट कने में कैसी धार्मिक अड़चन?
अभी कुछ दिन पहले बसपा सांसद ने वन्दे मातरम् का जो अपमान किया वो अशोभनीय और निंदनीय है और राक्षस प्रवर्त्ति का कार्य है जो मातृभूमि का नहीं वो किसी का नहीं ऐसे लोग भरोसे के लायक नहीं होते परन्तु देशप्रेम पर राजनीति और वोट नीति हावी है तो क्या किया जा सकता है? ऐसे लोगो को चुनकर भेजने वाले भी अपराधी हो गए. वो कहते है इस्लाम वन्दे मातरम् बोलने की इजाज़त नहीं देता, कोई उनसे पूछे ऐसा इस्लाम या कुरआन में कंहा लिखा है? बल्कि कुरान या इस्लाम के मुताबिक़ तो लोकतंत्र/चुनाव प्रणाली का विरोध है इसे काफिर प्रणाली कहा गया है तो वो किस आधार पर चुनाव लडे? तब इस्लाम से इजाज़त ली?

चाहे जो हो धर्म तुम्हारा चाहे जो वादी हो ।नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।‍‍‌
जिसके अन्न और पानी का इस काया पर ऋण है,जिस समीर का अतिथि बना यह आवारा जीवन है
जिसकी माटी में खेले, तन दर्पण-सा झलका है,उसी देश के लिए तुम्हारा रक्त नहीं छलका है
तवारीख के न्यायालय में तो तुम प्रतिवादी हो । नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
जिसके पर्वत खेत घाटियों में अक्षय क्षमता है,जिसकी नदियों की भी हम पर माँ जैसी ममता है
जिसकी गोद भरी रहती है, माटी सदा सुहागिन,ऐसी स्वर्ग सरीखी धरती पीड़ित या हतभागिन ?
तो चाहे तुम रेशम धारो या पहने खादी हो ।नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
जिसके लहराते खेतों की मनहर हरियाली से,रंग-बिरंगे फूल सुसज्जित डाली-डाली से
इस भौतिक दुनिया का भार ह्रदय से उतरा है,उसी धरा को अगर किसी मनहूस नज़र से खतरा है
तो दौलत ने चाहे तुमको हर सुविधा लादी हो ।नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
अगर देश मर गया तो बोलो जीवित कौन रहेगा?और रहा भी अगर तो उसको जीवित कौन कहेगा?
माँग रही है क़र्ज़ जवानी सौ-सौ सर कट जाएँ,पर दुश्मन के हाथ न माँ के आँचल तक आ पाएँ
जीवन का है अर्थ तभी तक जब तक आज़ादी हो।नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
चाहे हो दक्षिण के प्रहरी या हिमगिरी वासी हो, चाहे राजा रंगमहल के हो या सन्यासी हो
चाहे शीश तुम्हारा झुकता हो मस्जिद के आगे,चाहे मंदिर गुरूद्वारे में भक्ति तुम्हारी जागे
भले विचारों में कितना ही अंतर बुनियादी हो। नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
                                                                                -डॉक्टर विवेक आर्य
शर शैय्या पर पड़े भीष्म पितामह से जब गांधारी ने कहा की कुल का नाश हो रहा है और आप भी मृत्यु की ओर जा रहे है तो भीष्म पितामह ने कहा की कुल की ओर मेरी चिंता छोड़ दो ये देखो देश का नाश हो रहा है. मातृभूमि का विभाजन करके हम अपराधी हो गए कोशिश की युद्ध रोकने की लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला अतः यदि कभी भविष्य में ऐसी स्थिति आती है तो रणभूमि में आ जाओ लेकिन मातृभूमि का विभाजन कदापि स्वीकार न करे. इससे कभी भी मैत्री सम्बन्ध नहीं सुधरेंगे. फिर भी इस कथन को भूलकर गाँधी और नेहरु जैसे लोगो ने मिलकर जो मातृभूमि के विभाजन का पाप किया उससे इतिहास और भारत कभी क्षमा नहीं पायेगा शायद, भारत विभाजन मेरी लाश पर होगा ऐसा नाटक भी करते रहे और अन्दर कमरों में मातृभूमि का सौदा भी करते रहे. अमर बलिदानी श्री नाथूराम गोडसे जी ने जो दंड गाँधी को दिया वो भी काफी कम था उनके अपराधो के लिया? आज भी भारत सुखी नहीं है और न पाकिस्तान, और भारत में वेसे ही हालात दोबारा बन गए है तो ऐसे कब तक बंटेगा भारत?
भरा जो नहीं भावो से बहती जिसमे रसधार नहीं,
वो ह्रदय नहीं पत्थर है जिसमे मातृभूमि का प्यार नहीं.
महाभारत युद्ध में जब अर्जुन अपने पितामह पर बाण चला रहे थे तो मोहवश वो बाद भीष्म पितामह का कुछ नहीं कर पा रहे थे तब श्रीकृष्ण ने स्वयम शस्त्र उठा लिया, अर्जुन ये देखकर पैरो में गिर गए आपकी प्रतिज्ञा टूट जाएगी तब श्रीकृष्ण ने कहा मेरी प्रतिज्ञा से बड़ा धर्म है मेरा देश है. इसमें श्रीकृष्ण ने दो-दो सन्देश दिए की अपने देश की रक्षा करना सबसे बड़ा धर्म है जैसे की भीष्म पितामह ने अपने पिता के लिए ली गयी प्रतिज्ञा को ज्यादा महत्वपूर्ण समझा अपनी मातृभूमि को नहीं. उन्होंने शाशक में देश का चेहरा समझा जबकि उन्हें देश में शाशक का चेहरा देखना था. स्वयम भीष्म ने कहा था की कोई प्रतिज्ञा देश से बड़ी नहीं होती मुझे ऐसी प्रतिज्ञा अपने पिता के लिए लेनी हो तो ले सकता हु परन्तु अगर वह राष्ट्रहित के आड़े आती है तो छोड़ देनी चाहिए. मेरी नज़र में मंदिरों में मत्था टेकने से लाख गुना बेहतर है भारत मत की सेवा करना और उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना.
तोड़ता हु मोह का बंधन क्षमा दो,
गाँव मेरे,द्वार,घर.आँगन क्षमा दो,
आज सधे हाथ में तलवार दे दो,
और बांये हाथ में ध्वज को थम दो,
ये सुमन लो ये चमन लो,
नीड का त्रण त्रण समर्पित,
चाहता हूँ देश की धरती
तुझे कुछ और भी दूं मैं.

Friday, 7 June 2013

धर्म - एक कार्य संकलन

धर्म क्या है? क्या इसकी परिभाषा है इसे लेकर भारत ही नहीं अपितु पुरे विश्व खींच तान रहती है सभी के अपने अपने तर्क है, मेरी नज़र में धर्म की अपनी एक अलग परिभाषा (defination) है.
सभी लोगो को सुना होगा हिन्दू धर्म, मुस्लिम धर्म, सिख, जैन, बौद्ध या इसाई. लेकिन मेरी नज़र में इनमे से कोई भी धर्म नहीं है. इन्हें मत या सम्प्रदाय या community कह सकते है. या किसी विशेष नियमो को मानने वाले लोग.

मैं कुछ परिभाषाये देता हूँ जो शायद धर्म क्या है इसको परिभाषित कर सके.-

1 - अपने कर्तव्यो (duty) और दुसरो के अधिकारों के संतुलन को ही धर्म कहते है.
अर्थात हमे अपने कार्यो से किसी दुसरे को पीड़ा या परेशानी नहीं होनी चाहिए अगर होती है यही अधर्म है. यह परिभाषा भीष्म पितामह की दी हुई है, जो सबसे सटीक बैठती है.
2 - धर्म उन कार्यो का संकलन है जो करने योग्य है.
अर्थात वो कार्य जो अच्छे हो सभी के हितकारी हो वो ही धर्म है.
3- धर्म का अर्थ होता है धारण करना या धारण करने योग्य, अथवा हम कह सकते है वह कर्म/गुण जो धारण करने योग्य हो जिसमे संसार का कल्याण हो किसी का भी अहित न हो.
                                                                                          -महर्षि दयानंद सरस्वती
4 - कुछ लोगो के अनुसार मानव सेवा ही धर्म है.
(लेकिन जब तक मानव सेवा में राष्ट्र सेवा न जुड़े ये भी अधुरा है.)
5- सत्य, अहिंसा, संसार का उपकार और अच्छे कार्य करते हुए, ईश्वर का धन्यवाद करते हुए जिया जाये धर्म है.

धर्म के कई प्रकार होते है वास्तव में हम अपने जीवन में धर्म के इतने पहलुओ में बंधे होते है कि हर कार्य ही हमारा धर्म होता है. जैसे कि-
1 - राष्ट्रधर्म - अपने राष्ट्र को सभी से बड़ा मानना ही धर्म है उसके रास्ते में कोई हिन्दू या मुस्लिम मत नहीं आ सकता. तभी तो कवि  माखन लाल चतुर्वेदी ने पुष्प (फूल) कि अभिलाषा को बताया है कि राष्ट्रहीत को क्या समझे जीवन में?

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ
मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक ।।

महर्षि दयानंद ने प्रत्येक धार्मिक मनुष्य को जो नियम दिए वो धर्म की कसौटी पर खरे उतरते है.-
1- सब काम धर्मानुसार, अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिएँ ।
2- सँसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्धेश्य है, अर्थात् शारीरिक्, आत्मिक और सामाजिक् उन्नति करना ।
3- सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिए । 
3- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिए, किन्तु सब की उन्नती सें अपनी उन्नति समझनी चाहिए ।
4- सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वाहितकारी, नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए आर प्रत्येक हितकारी नियम पालने सब स्वतंत्र रहें ।

जब हम किसी के साथ गलत  करते  है चोरी करते है अन्याय करते है तो वो ही अधर्म हो जाता है ,और जब किसी का उपकार करते है तो वो ही धर्म हो जाता है तो इसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख जैसी बात कंहा से आ गयी? जो मत या सम्प्रदाय हमे धर्मानुसार कार्य सिखाता है वो ही धर्म है.
अतः सभी मतावलंबियो (सम्प्रदायों) को श्रेष्ठता की लडाई छोड़कर केवल विश्व के उपकार का सोचना चाहिए.


तेरे दुःख और दर्द का मुझपर भी हो ऐसा असर,
तू रहे भूखा तो मुझसे भी न खाया जाये.
तेरी मंजिल को अगर रास्ता ना मैं दिखला सकू,
मुझसे भी मेरी मंजिल को ना पाया जाये.
तेरे तपते शीश को गर छाँव ना मैं दिखला सकू,
मेरे सर की छाँव से सूरज सहा ना जाये.
तेरे अरमानो को गर पंख ना लगा सकू,
मेरी आशाओ के पैरो से चला ना जाये.
तेरे अंधियारे घर को ना रोशन कर सकू,
मेरे आंगन के दिए की बाती से जला ना जाये.
तेरे घावों को अगर मरहम से ना सहला सकू,
मेरे नन्हे ज़ख़्म को बरसो भरा ना जाये.
आग बुझती है यंहा गंगा में भी झेलम में भी,
कोई बतलाये कंहा जाकर नहाया जाये.

बात सच्ची हो तो चाहे जिस ज़बा मे बोलिये,
फर्क मतलब पर नहीं पड़ता है ख़ालिक़ कि क़सम ।
"माँ के पैरो मे है जन्नत" क़ौल है मासूम का,
मै मुसल्ले पर भी कह सकता हुं “वन्दे मातरम” ।। --”काज़िम” जरवली

कहने का आशय ये है की धर्म को किसी जाति या सम्प्रदाय से जोड़कर न देखा जाये कुछ विशेष गुण कर्म वाले मनुष्य ही धार्मिक/धर्मात्मा होते है.