ये हमारी प्रवृत्ति है की स्वयं पर विश्वास न करके दुसरो पर करना बिना सोचे समझे अन्धि नक़ल करते है. जिसका फायदा वो लोग उठा लेते है जिनको हम नायक बना देते है.
जब बिसलेरी, कोका कोला, पेप्सी जैसी कम्पनीया भारत में पानी बेचने आयी तो किसने सोचा था कि ये इतना बिकेगा? लेकिन जब सचिन तेंदुलकर ओर अमीर खान जैसे लोगो ने इनका विज्ञापन किया तो इन कम्प्नियो का पानी गांव गांव तक बिकता है. गाँधी, अन्ना, केजरीवाल या कांग्रेस् सभी ने हमारी इस कमजोरी का फायदा उठाया.
इस ब्लॉग में मेने दूसरों पर देखी ओर अपने ऊपर घटित हुए महसूस कि हुई घटनाओं को लिखा. मैं शुरू से ही कन्या शिक्षा का प्रबल समर्थक रहा था. मैं चाहता था कि कन्या विध्यर्थियो के लिए बसों में निशुल्क किराये कि व्यवस्था हो क्योकि हम लड़कियों को घर से ही हतोत्साहित कर देते है लेकिन मैं जब भी किसी से बोलता तो हर कोई बोलता कि क्या ज़रुरात है इसकी? लएकिन जब भाजपा के सी.एम. खंदुरि ने यह व्यवस्था दी चूँकि वो भाजपा के थे तो लोगो ने काफ़ी खुशी जाहिर की ओर तारीफ की फिर मेने उन्हीं लोगो से पूछा कि मैं भी तो यही बोलता था फिर तब तो कहते थे कि कोई ज़रूरत नही लेकिन आज समर्थन कैसे? या तो उस समय मैं ग़लत था या आज सी. एम. भी ग़लत है? ऎसी कई घटनाये मेने देखी. किसी कोई कहा कि क्रिकेट/आई पी एल तो देश द्रोही है तो बोलते है क्यो है देश द्रोही?
लेकिन हमने तो कसम खाई हुई है ना कि हम नही सुंनेगे अपनी ओर अपने साथियों कि.
जिस भारत माता के फोटो को लगाकर असीम त्रिवेदी हीरो बनते है प्रसिद्धि मिलने के बाद उसी भारत माता के अस्तितव को अस्वीकार कर देते है, कोई सम्झाये असीम जी को कि भारत माता अर्थात मातृभूमि जिसे अँगरेजी में मदरलैंड (motherland) कहते है. राज ठाकरे बोलते है कि हिन्दी तो राज भाषा है राष्ट्र भाषा नही अब वो राज्नीतिक व्यक्ति होकर भी नही जानते कि संविधान में देश यानी राष्ट्र को राज्य ही लिखा है ओर राज्य को प्रदेश. ओर हिन्दी को छोड़कर कौनसी भाषा है देश में जो सब जगह बोली समझी जा सकती है? उन्हें अँगरेजी से कोई ऐतराज नही तो हिन्दी से क्यो? एक समय था जब फ्रांसीसियो का ब्रिटेन पर राज था तो ब्रिटेन में अंग्रेजी बोलने पर सौ कोड़े मरने की सजा का प्रावधान था, लेकिन अंग्रेजो ने अपनी भाषा को नहीं छोड़ा, उसमे विश्वाश रखा और आज अंग्रेजी विश्व की दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है. हम अंग्रेजो को काफी बुरा समझते रहे है वो रहे भी बुरे हमारे प्रति लेकिन अपने देश के प्रति नहीं. हम लोग अच्छी तरह जानते है कि उन देशो का वातावरण काफी ठंडा रहता है और अंग्रेजो को यंहा रहने में दिक्कते भी होती है फिर भी उनकी सेना ने इतने मोटे मोड कपडे, कमर पर भारी वजन लेकर चले और युद्ध भी किया किसके लिए अपने देश के लिए अपने देश के झंडे को पूरी धरती पर फहराने के लिए. पर हम उनसे कुछ सीख न सके. आज भी हम लोग अपनी भाषा को छोड़कर अंग्रेजी कि तरफ दोड़ते है ये सोचकर कि अंग्रेजी के बिना कुछ संभव नहीं है और यही अंग्रेजी पहले स्थान पर नहीं है दुसरे स्थान पर है पहले स्थान पर तो चीनी भाषा है. जब चीन अपनी चीनी भाषा के साथ अभूतपूर्व विकास कर सकता है तो हम क्यों नहीं? उषा पान (सुबह उठकर जल पीना) कि परम्परा को हम कहते है कि चीन से आई जबकि पुराने शाश्त्रो में इसका साफ़ जिक्र किया है लेकिन हमने खुद को नाकारा साबित किया है और घर का जोगी जोगडा पसगांवा का सिद्ध कि बात को चरितार्थ किया है.
योग प्राणायाम से बड़े से बड़े रोग दूर हो जाते है परन्तु हम अंग्रेजी पद्दति से इलाज करना चाहते है. योग के विषय में कहा गया है-
जो योग नहीं करता-
जो आकर न जाये वो बुढ़ापा देखा, जो जाकर ना आये वो जवानी देखी.
लेकिन योग करने वालो का-
जो आकर भी जाये वो बुढ़ापा देखा और जो जाकर भी आये वो जवानी देखी.
महर्षि दयानंद जी ने भी प्रत्येक व्यक्ति को सुबह जल्दी उठकर (तारो कि छाँव में) बाहर घुमने और योग इत्यादि करके ईश्वर का ध्यान संध उपासना करने पर जोर दिया है.; इससे व्यक्ति के अन्दर आत्मविश्वास बढ़ता है और आत्मविश्वाशी व्यक्ति अति प्रतिकूल परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता. हम भारतीय रेल के डब्बे कि तरह हो गए है हम किसी भी इंजन के पीछे चल देते है लेकिन कभी वो इंजन बनने का प्रयास नहीं करते है.
हम आम आदमी हैं
किसी ‘खास’ का अनुगमन हमारी नियति है हमारे बीच से ही बनता है कोई ‘ खास ‘
हमारी मुट्ठियाँ देतीहैं शक्ति हमारे नारे देते हैं आवाज़
हमारे जुलूस देते हैं गति ... हमारी तालियाँ देती हैं समर्थन ….
तकरीरों की भट्टियों मे पकाए जाते हैं जज़्बात
हमारे सीने सहते हैं आघात
धीरे धीरे बढ़ने लगती हैं मंचों की ऊँचाइयाँ
पसरने लगते हैं बैरिकेट्स पनपने लगती हैं मरीचिकाएं
चरमराने लगती है आकांक्षाओं की मीनार
तभी … अचानक होता है आभास
कि वो आम आदमी अबआम नहीं रहा
हो गया है खास और फिर धीरे धीरे …..
उसे बुलंदियों का गुरूर होता गया
आम आदमी का वही चेहरा आम आदमी से दूर होता गया
लोगों ने समझा नियति का खेल हो लिए उदास …
कोई चारा भी नहीं था पास लेकिन एक दिन
जब हद से बढ़ा संत्रास (यही कोई ज़मीरी मौत के आस -पास )
फिर एक दिन अकुला कर सिर झटक , अतीत को झुठला कर
फिर उठ खड़ा होता है कोई आम आदमी
भिंचती हैं मुट्ठियाँ उछलते हैं नारे
निकलते हैं जुलूस …. गढ़ी जाती हैं आकांक्षाओं की मीनारें
पकाए जाते हैं जज़्बात तकरीर की भट्टियों पर
फिर एक भीड़ अनुगमन करती है छिन्नमस्ता ,……!
और एक बार फिर से बैरीकेट्स फिर पसरते हैं
मंचों का कद बढ़ता है वो आम आदमी का नुमाइंदा
इतना ऊपर चढ़ता है … कि आम आदमी तिनका लगता है
अब आप ही कहिए … ये दोष किनका लगता है ?
वो खास होते ही आम आदमी से दूर चला जाता है
और हर बार आम आदमी ही छ्ला जाता है
चलिये कविता को यहाँ से नया मोड़ देता हूँ
एक इशारा आपके लिए छोड़ देता हूँ
गौर से देखें तो हमारे इर्द गिर्द भीड़ है
हर सीने मे कोई दर्द धड़कता है हर आँख मे कोई सपना रोता है
हर कोई बच्चों के लिए भविष्य बोता है
मगर यह भीड़ है बदहवास छितराई मानसिकता वाली
आम आदमी की भीड़ पर ये रात भी तो अमर नहीं है !!
एक दिन ….आम आदमी किसी “खास” की याचना करना छोड़ देगा
समग्र मे लड़ेगा अपनी लड़ाई ,वक्त की मजबूत कलाई मरोड़ देगा
जिस दिन उसे भरोसा होगा कि कोई चिंगारी आग भी हो सकती है
बहुत संभव है बुरे सपने से जाग भी हो सकती है
और मुझे तो लगता है यही भीड़ एक दिन क्रान्ति बनेगी
और किस्मत के दाग धो कर रहेगी थोड़ी देर भले हो सकती है ‘
मगर ये जाग हो कररहेगी थोड़ी देर भले हो सकती है
मगर ये जाग हो कर रहेगी
किसी ‘खास’ का अनुगमन हमारी नियति है हमारे बीच से ही बनता है कोई ‘ खास ‘
हमारी मुट्ठियाँ देतीहैं शक्ति हमारे नारे देते हैं आवाज़
हमारे जुलूस देते हैं गति ... हमारी तालियाँ देती हैं समर्थन ….
तकरीरों की भट्टियों मे पकाए जाते हैं जज़्बात
हमारे सीने सहते हैं आघात
धीरे धीरे बढ़ने लगती हैं मंचों की ऊँचाइयाँ
पसरने लगते हैं बैरिकेट्स पनपने लगती हैं मरीचिकाएं
चरमराने लगती है आकांक्षाओं की मीनार
तभी … अचानक होता है आभास
कि वो आम आदमी अबआम नहीं रहा
हो गया है खास और फिर धीरे धीरे …..
उसे बुलंदियों का गुरूर होता गया
आम आदमी का वही चेहरा आम आदमी से दूर होता गया
लोगों ने समझा नियति का खेल हो लिए उदास …
कोई चारा भी नहीं था पास लेकिन एक दिन
जब हद से बढ़ा संत्रास (यही कोई ज़मीरी मौत के आस -पास )
फिर एक दिन अकुला कर सिर झटक , अतीत को झुठला कर
फिर उठ खड़ा होता है कोई आम आदमी
भिंचती हैं मुट्ठियाँ उछलते हैं नारे
निकलते हैं जुलूस …. गढ़ी जाती हैं आकांक्षाओं की मीनारें
पकाए जाते हैं जज़्बात तकरीर की भट्टियों पर
फिर एक भीड़ अनुगमन करती है छिन्नमस्ता ,……!
और एक बार फिर से बैरीकेट्स फिर पसरते हैं
मंचों का कद बढ़ता है वो आम आदमी का नुमाइंदा
इतना ऊपर चढ़ता है … कि आम आदमी तिनका लगता है
अब आप ही कहिए … ये दोष किनका लगता है ?
वो खास होते ही आम आदमी से दूर चला जाता है
और हर बार आम आदमी ही छ्ला जाता है
चलिये कविता को यहाँ से नया मोड़ देता हूँ
एक इशारा आपके लिए छोड़ देता हूँ
गौर से देखें तो हमारे इर्द गिर्द भीड़ है
हर सीने मे कोई दर्द धड़कता है हर आँख मे कोई सपना रोता है
हर कोई बच्चों के लिए भविष्य बोता है
मगर यह भीड़ है बदहवास छितराई मानसिकता वाली
आम आदमी की भीड़ पर ये रात भी तो अमर नहीं है !!
एक दिन ….आम आदमी किसी “खास” की याचना करना छोड़ देगा
समग्र मे लड़ेगा अपनी लड़ाई ,वक्त की मजबूत कलाई मरोड़ देगा
जिस दिन उसे भरोसा होगा कि कोई चिंगारी आग भी हो सकती है
बहुत संभव है बुरे सपने से जाग भी हो सकती है
और मुझे तो लगता है यही भीड़ एक दिन क्रान्ति बनेगी
और किस्मत के दाग धो कर रहेगी थोड़ी देर भले हो सकती है ‘
मगर ये जाग हो कररहेगी थोड़ी देर भले हो सकती है
मगर ये जाग हो कर रहेगी
- श्री पद्म सिंह
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