Friday, 7 June 2013

धर्म - एक कार्य संकलन

धर्म क्या है? क्या इसकी परिभाषा है इसे लेकर भारत ही नहीं अपितु पुरे विश्व खींच तान रहती है सभी के अपने अपने तर्क है, मेरी नज़र में धर्म की अपनी एक अलग परिभाषा (defination) है.
सभी लोगो को सुना होगा हिन्दू धर्म, मुस्लिम धर्म, सिख, जैन, बौद्ध या इसाई. लेकिन मेरी नज़र में इनमे से कोई भी धर्म नहीं है. इन्हें मत या सम्प्रदाय या community कह सकते है. या किसी विशेष नियमो को मानने वाले लोग.

मैं कुछ परिभाषाये देता हूँ जो शायद धर्म क्या है इसको परिभाषित कर सके.-

1 - अपने कर्तव्यो (duty) और दुसरो के अधिकारों के संतुलन को ही धर्म कहते है.
अर्थात हमे अपने कार्यो से किसी दुसरे को पीड़ा या परेशानी नहीं होनी चाहिए अगर होती है यही अधर्म है. यह परिभाषा भीष्म पितामह की दी हुई है, जो सबसे सटीक बैठती है.
2 - धर्म उन कार्यो का संकलन है जो करने योग्य है.
अर्थात वो कार्य जो अच्छे हो सभी के हितकारी हो वो ही धर्म है.
3- धर्म का अर्थ होता है धारण करना या धारण करने योग्य, अथवा हम कह सकते है वह कर्म/गुण जो धारण करने योग्य हो जिसमे संसार का कल्याण हो किसी का भी अहित न हो.
                                                                                          -महर्षि दयानंद सरस्वती
4 - कुछ लोगो के अनुसार मानव सेवा ही धर्म है.
(लेकिन जब तक मानव सेवा में राष्ट्र सेवा न जुड़े ये भी अधुरा है.)
5- सत्य, अहिंसा, संसार का उपकार और अच्छे कार्य करते हुए, ईश्वर का धन्यवाद करते हुए जिया जाये धर्म है.

धर्म के कई प्रकार होते है वास्तव में हम अपने जीवन में धर्म के इतने पहलुओ में बंधे होते है कि हर कार्य ही हमारा धर्म होता है. जैसे कि-
1 - राष्ट्रधर्म - अपने राष्ट्र को सभी से बड़ा मानना ही धर्म है उसके रास्ते में कोई हिन्दू या मुस्लिम मत नहीं आ सकता. तभी तो कवि  माखन लाल चतुर्वेदी ने पुष्प (फूल) कि अभिलाषा को बताया है कि राष्ट्रहीत को क्या समझे जीवन में?

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ
मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक ।।

महर्षि दयानंद ने प्रत्येक धार्मिक मनुष्य को जो नियम दिए वो धर्म की कसौटी पर खरे उतरते है.-
1- सब काम धर्मानुसार, अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिएँ ।
2- सँसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्धेश्य है, अर्थात् शारीरिक्, आत्मिक और सामाजिक् उन्नति करना ।
3- सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिए । 
3- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिए, किन्तु सब की उन्नती सें अपनी उन्नति समझनी चाहिए ।
4- सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वाहितकारी, नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए आर प्रत्येक हितकारी नियम पालने सब स्वतंत्र रहें ।

जब हम किसी के साथ गलत  करते  है चोरी करते है अन्याय करते है तो वो ही अधर्म हो जाता है ,और जब किसी का उपकार करते है तो वो ही धर्म हो जाता है तो इसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख जैसी बात कंहा से आ गयी? जो मत या सम्प्रदाय हमे धर्मानुसार कार्य सिखाता है वो ही धर्म है.
अतः सभी मतावलंबियो (सम्प्रदायों) को श्रेष्ठता की लडाई छोड़कर केवल विश्व के उपकार का सोचना चाहिए.


तेरे दुःख और दर्द का मुझपर भी हो ऐसा असर,
तू रहे भूखा तो मुझसे भी न खाया जाये.
तेरी मंजिल को अगर रास्ता ना मैं दिखला सकू,
मुझसे भी मेरी मंजिल को ना पाया जाये.
तेरे तपते शीश को गर छाँव ना मैं दिखला सकू,
मेरे सर की छाँव से सूरज सहा ना जाये.
तेरे अरमानो को गर पंख ना लगा सकू,
मेरी आशाओ के पैरो से चला ना जाये.
तेरे अंधियारे घर को ना रोशन कर सकू,
मेरे आंगन के दिए की बाती से जला ना जाये.
तेरे घावों को अगर मरहम से ना सहला सकू,
मेरे नन्हे ज़ख़्म को बरसो भरा ना जाये.
आग बुझती है यंहा गंगा में भी झेलम में भी,
कोई बतलाये कंहा जाकर नहाया जाये.

बात सच्ची हो तो चाहे जिस ज़बा मे बोलिये,
फर्क मतलब पर नहीं पड़ता है ख़ालिक़ कि क़सम ।
"माँ के पैरो मे है जन्नत" क़ौल है मासूम का,
मै मुसल्ले पर भी कह सकता हुं “वन्दे मातरम” ।। --”काज़िम” जरवली

कहने का आशय ये है की धर्म को किसी जाति या सम्प्रदाय से जोड़कर न देखा जाये कुछ विशेष गुण कर्म वाले मनुष्य ही धार्मिक/धर्मात्मा होते है.

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